इस सवाल का जवाब एक लाइन में नहीं दिया जा सकता। खासकर पश्चिम बंगाल के मामले में तो ये और भी पेंचीदा है। संविधान के अनुसार कानून और व्यवस्था के मामले राज्य के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। सीबीआई का गठन दिल्ली स्पेशल पुलिस एक्ट के तहत हुआ है जिसके अनुसार किसी भी राज्य में जांच के लिए सीबीआई को राज्य सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है। एजेंसी को काम काज में दिक्कत ना हो इसके लिए लगभग सभी राज्यों की तरफ से एक सामान्य सहमति दी जाती है। लेकिन पश्चिम बंगाल औऱ आंध्रप्रदेश ने हाल ही में इस सहमति को वापस ले लिया। इसका कारण उन्होने सीबीआई के भीतर हुए झगड़े और केंद्र सरकार पर इसे राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना बताया।
सामान्य सहमति के वापस लेने का मतलब
इस स्थिति में बिना राज्य की अनुमति के सीबीआई किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोई भी नया केस रजिस्टर नहीं कर सकती है जो उस राज्य में रहता हो। सहमति वापसी का का सीधा मतलब है कि सीबीआई की उस राज्य में घुसते ही सारी शक्तिया खत्म हो जाती है अगर उनके पास राज्य की अनुमति नहीं है।
क्या इसका मतलब है कि सीबीआई उन राज्यों में जांच नही कर सकती है जहां की सरकारों ने आम सहमति वापस ले ली है?
ऐसा नहीं है। जो मामले आम सहमति के समय रजिस्टर किए गए हैं उनकी जांच करने का अधिकार सीबीआई के पास है। हालांकि इस बारे में कोई साफ राय नहीं है कि ऐसे राज्यों में बिना राज्य की सहमति के पुराने मामलों में कोई तलाशी, या सामान सीबीआई ज़ब्त कर सकती है कि नहीं लेकिन कुछ कानूनी तरीके हैं जिनके आधार पर ऐसा किया जा सकता है। सीबीआई स्थानीय कोर्ट से इसकी अनुमति ले सकती है। इसके अलावा crpc के सेक्शन 166 के तहत सीबीआई उस क्षेत्र के पुलिस अधिकारी से जांच के लिए कह सकती है। यदि सीबीआई को लगता है कि उक्त पुलिस अधिकारी जांच में कोताही कर रहा है या उसके आचरण से सबूत नष्ट हो सकते हैं तो उसे नोटिस दे कर वो खुद भी जांच कर सकती है।
एक औऱ तरीका है कि जिन राज्यों ने सहमति वापस ली है वहां के मामलों में जांच करने के लिए सीबीआई दिल्ली में भी मामला दर्ज़ कर सकती है। और उस राज्य के भीतर जांच जारी रख सकती है। लेकिन ज़रूरी ये होगा कि अपराध का संबंध दिल्ली से भी हो।
इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेच का भी एक आदेश है जिसमें कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट कोई केस जांच के लिए सीबीआई को ट्रांस्फर करता है तो राज्य सरकार की अनुमति की ज़रूरत नहीं है। इसे कोर्ट की संवैधानिक शक्ति और न्यायिक पुनर्विचार के तहत माना जाएगा।